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समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और सिविल सोसाइटी के मायनें

सरोकार
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corruption Indiaनिसंदेह अन्ना हज़ारे और उनके सहयोगियों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने भारतीय नौकरशाही और राजनीति को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने के लिए, प्रभावी लोकपाल बिल लाए जाने के सवाल को एक राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया हैं. जंतर-मंतर पर हुए उनके आमरण अनशन को मिले जनता, विशेषकर युवाओं, के समर्थन ने भी यह स्पष्ट कर दिया हैं अब जनता पूरी तरह भ्रष्ट व्यवस्था से त्रस्त आ चुकी हैं. समाज के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार को अब और सहन कर पाना अब संभव नहीं हैं. हमारे देश की लचर, पेचीदा कानून व्यवस्था और कमजोर कानूनों द्वारा भ्रष्टाचार को मात नहीं दी जा सकती.


राजनैतिक इकाई कोई भी हो, यह साफ देखा जा सकता है कि ऊपर से लेकर नीचे तक सभी भ्रष्टाचार को अपना जन्म सिद्ध अधिकार समझ जी खोल कर उसका अनुसरण करते हैं. ऐसे हालातों के मद्देनजर अब जनता, सिविल सोसाईटी के रूप में एक ऐसी समानांतर समीति का गठन किए जाने की मांग कर रही है जो सरकार और उसके क्रियाकलापों पर अपनी पैनी नजर रखे. ताकि फिर कोई सरकारी बाशिंदा देश और जनता के हितों को ताक पर रख कर अपना स्वार्थ ना सिद्ध कर सकें.


भारतीय संसदीय लोकतंत्रीय प्रणाली में हम स्वयं ही अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करते हैं, जिनके खिलाफ सिविल सोसाईटी के सदस्यों का चुनाव भी हम स्वयं ही करेंगे, जो हमारी चयन करने की योग्यता और हमारी सूझ-बूझ पर ही सवालिया निशान लगा दें. हमें आए-दिन यह एहसास दिलवाए कि जिन राजनेताओं को केवल हमारे हितों के लिए कार्य करने के लिए कुर्सी दी गई हैं, वह तो सत्ता और लालच के नशे में इस कदर मदमस्त हो चुके हैं कि उन्हें तो जनता के बारें में सोचने की फुरसत तक नहीं हैं. जब वहीं ईमानदार नहीं निकले तो हम यह कैसे मान ले कि सिविल सोसाईटी और उसके कार्यकर्ता अपने उत्तरदायित्वों पर लालच को हावी नहीं होने देंगे. इतिहास गवाह है कि जब भी व्यक्ति के हाथ में सत्ता आई हैं. उसने उसका दुरुपयोग अवश्य किया हैं.


वैसे भी राजनीति और सत्ता का भ्रष्टाचारीकरण कोई आज का मुद्दा नहीं हैं, यह तो भारत शासन व्यवस्था के इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण अंग रहा हैं. ब्रिटिश काल में अंग्रेज मुट्ठिभर संपन्न लोगों को धन का लालच देकर देश से गद्दारी करने के लिए राजी कर लेते थे. भारत को जैसे ही आजादी मिलने वाली थी, उस समय भी चंद ताकतवर राजनेताओं ने देश का विभाजन कर दिया. उसी समय यह स्पष्ट हो गया कि विशिष्ट वर्ग के लोग अपनी राजनैतिक हित साधने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. समय के साथ साथ हालात और अधिक गंभीर हो गए हैं. अब तो भ्रष्टाचार राजनीति का ऐसा अंग बन गया है, जिसे अलग कर पाना किसी बहुत मुश्किल हैं.


लेकिन क्या भ्रष्टाचार केवल एक राजनैतिक मुद्दा है, और इसका संबंध सिर्फ सफेदपोशों से ही हैं ?


corrution in India लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में यह हमेशा से देखा गया हैं कि सरकार चाहे किसी की भी बनें. सत्ता किसी के भी पास हों, भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो पाता. हम अपनी सारी विचार क्षमता किसे वोट डाले उसपर लगा देते हैं. इस उम्मीद से की शायद आने वाली सरकार काया-पलट कर पाएगी. लेकिन अंत में वहीं होता हैं, जो पहले से ही निर्धारित होता हैं. गरीब जनता का शोषण, और पैसों की घपले-बाजी. हां तरीके और माध्यम थोड़े बहुत जरूर बदल जाते हैं. लेकिन उद्देश्य वही रहता हैं, कैसे भी, कहीं से भी अधिकाधिक धनार्जन. भ्रष्टाचार के विस्तृत और विक्राल होते रूप के पीछे सबसे बड़ा कारण यह हैं कि जिस भ्रष्टाचार, जिसे हम अकसर राजनीति से ही जोड़ कर देखते हैं, कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बल्कि सामाजिक मुद्दा हैं. जो समान रूप से हम सभी से जुड़ा हैं. भ्रष्टाचार का संबंध किसी विशिष्ट व्यक्ति या दल से ना होकर संपूर्ण समाज से हैं.


बढ़ते भ्रष्टाचार के पीछे कई कारण उत्तरदायी हैं. जिन्हें केवल लोकपाल समीति बना लेने भर से समाप्त नहीं किया जा सकता. सबसे पहले तो अगर हम ऐसे वातावरण में जीने के लिए विवश है तो इसमें हमारी ही गलती हैं. हम बचपन से ही अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही जीते आ रहे हैं. यह हमारा स्वार्थ और लालच ही हैं जो आगे चलकर भ्रष्टाचार की समस्या जैसा विक्राल रूप धर लेता हैं. भ्रष्टाचार के इस तंत्र में आज परिस्थितियां ऐसी बन गई हैं कि अब नागरिकों द्वारा चुने हुए सांसद ही उनकें सवाल सरकार तक पहुंचाने के लिए पैसे मांगने लगे हैं. कफन घोटाला, चारा घोटाला,  दवा घोटाला ऐसे घोटाले बस यहीं साबित करते है कि अब मनुष्य़ की सोच और उद्देश्य केवल पैसा कमाने तक ही सीमित रह गया हैं. अब जब भ्रष्टाचार एक सामाजिक मुद्दा है तो संभव हैं भ्रष्टों में से भष्ट ही चुने जाएंगे. इसके अलावा नई आर्थिक नीतियों जैसे वैश्वीकरण और उदारीकरण भी भ्रष्टाचार को बढ़ाने में अहम भुमिका निभा रही हैं. एक ओर तो जहां इनके भारत आगमन से हमारी आर्थिक और सामाजिक प्रगति को गति प्राप्त हुई है, वहीं दूसरी ओर इनके तहत विदेशी अभिरुचियों और मानसिकता का भारतीय समाज में प्रवेश भ्रष्टाचार को समान रूप से बढ़ावा देता हैं. मनुष्य नई नई चीज़ों के प्रति आकर्षित हो उठता हैं. जरूरत ना होने पर भी उन्हें हासिल करने के लिए कोई भी राह पकड़ने से नहीं हिचकता.


भले ही सिविल सोसाटी के सदस्य सम्माननीय और ऐसे व्यक्ति होंगे जिनके आचरण और भूमिका पर संदेह कर पाना आसान नहीं हैं. लेकिन बिगड़ते हालातों पर भी केवल जन-लोकपाल की स्थापना होने से ही संतुष्ट हो जाना नासमझी होगी. इतनी बढ़ी जनसंख्या वाला हमारा यह देश चंद लोगों की कार्यशीलता पर भरोसा कर खुद को चिंता मुक्त समझने का जोखिम नहीं उठा सकता. अगर हमें वास्तव में भ्रष्टाचार से मुक्ति पानी हैं तो सबसे पहले खुद को परिवर्तित करना होगा. अपनी कामों को शीघ्रता से निपटाने के लिए बंद लिफाफे की प्रवृत्ति से बचना होगा.  हमें यह समझने की जरूरत हैं कि निचले स्तर पर सुधार शुरु होगा तभी ऊपरी पायदान को साफ रखा जा सकता हैं.


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