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समलैंगिकता जिसे हम होमोसेक्शुएलिटी के नाम से अधिक जानते हैं, उसे केवल एक बिमारी का नाम देना समलैंगिकों के प्रति सहानुभुति रखना होगा. इसके विपरीत समलैंगिकता एक ऐसी मानसिक विकृति है, जिसे जब तक अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा, इसे पर लगाम नहीं लगाई जा सकती. विदेशों से भारत आया यह मानसिक विकार, मनुष्य की भोग-विलास और संभोग के प्रति अत्याधिक रुचि का ही परिणाम है. जिसके परिणामस्वरूप समलैंगिकों के भद्दे और अप्राकृतिक आचरण ने पूरे समाज को अपनी चपेट में ले लिया हैं. हैरान करने वाली बात तो यह है कि, बड़ी-बड़ी सामाजिक हस्तियां और कुछ तथाकथित उदारवादी, जो वैयक्तिक स्वतंत्रता को कुछ ज्यादा ही महत्व देते है, वह इसके दूरगामी परिणामों को अनदेखा कर, खुले रूप से समलैंगिकता के समर्थन में सड़कों पर आकर प्रदर्शन करते हैं. जो निश्कित रूप से समलैंगिकों के प्रति इस घृणित आचरण को और बढ़ावा देता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी समलैंगिकता को बिमारी की श्रेणी में ना रखकर इसे मनुष्य के गलत बर्ताव और उसके भीतर उपज रहे मानसिक विकार को ही इसके लिए उत्तरदायी माना है. भले ही दिल्ली हाईकोर्ट ने IPC की धारा 377 में संशोधन कर व्यस्क समलैंगिकों के बीच स्वैच्छिक संबंधों को कानूनी संरक्षण प्रदान कर दिया है. लेकिन हमारा परंपरागत समाज चाहे कितना ही आधुनिक क्यों ना हो जाए, ऐसी घृणित मानसिक विकृति को शरण नहीं दे सकता.
समलैंगिकों को समर्थन देने के पीछे उनके वैयक्तिक स्वतंत्रता की दुहाई देना नासमझी होगी. ऐसी स्वतंत्रता किस काम की को जो समाज की मजबूत जड़ों को ही खोखला कर दे. इसके विपरीत समलैंगिक जोड़ों के प्रति सख्त से सख्त दंडनीय कार्यवाही किए जाने का प्रावधान होना चाहिये. क्योंकि यह कोई ऐसा विकार नहीं जो सहनुभुति या थोड़े से इलाज से ठीक हो जाए. यह एक सामाजिक और नैतिक अपराध है. जिसके दोषियों के प्रति किसी भी प्रकार की सांत्वना रखना हमारे लिए हितकर नहीं होगा.
जागरण जंक्शन फोरम में समलैंगिकों के संदर्भ में उठाए गए इस मुद्दे पर मैने पहले ही अपना लेख प्रकाशित किया है. उसे भी पढ़े और अपने विचारजाहिर करें.
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