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महिलाओं के सशक्तिकरण का मसला हालांकि कोई नई बात नहीं हैं. पिछले कई समय से महिलाओं को समाज में पुरुषों के बराबर स्थान दिलवाने के लिए कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं. जिनके परिणामस्वरूप उनकी दशा में थोड़ा बहुत सुधार देखा जा सकता हैं. लेकिन अगर हम इतने से ही यह मान ले कि महिलाओं को अपने हिस्से का सम्मान और न्याय मिल गया हैं, तो ऐसा सोचना किसी भी जागरुक व्यक्ति के लिए जल्दबाजी होगी.
शहरी क्षेत्र से संबंध होने के कारण मैने भी यह सोच लिया था कि अब महिलाओं को किसी के सहारे की जरूरत नही हैं, उन्हें समाज में स्वीकार्यता मिल गई हैं. आज वह अपने दम पर नई-नई ऊंचाइयों को छू रही हैं. लेकिन एक छोटी सी घटना ने मुझे दोबारा इस विषय पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया.
हाल ही की बात है, मै अपनी दोस्त, जिसका घर थोड़े ग्रामीण क्षेत्र में पड़ता हैं, के घर जा रही थी. रास्ता जाम होने की वजह से बस काफी देर तक रुकी रहीं. टाइम-पास करने के लिए बस में बैठे कुछ लोगों ने बाते करनी शुरु कर दी. उन्हीं में से एक बेहद गरीब दिखने वाली अधेड़ उम्र की महिला, पीतल का एक बड़ा और महंगा बर्तन लेकर बैठी थी. पास ही बैठे एक व्यक्ति ने उनसे उस बर्तन का भाव पूछा तो बहुत मार्मिक स्वर में उस महिला ने उसका मोल बताया. उस महिला के हालात देख कर यह नहीं लग रहा था कि वो मात्र एक बर्तन पर इतनी बड़ी रकम खर्च कर सकती हैं. ऐसे में मैने उनसे पूछ ही लिया कि इतने भारी बर्तन का आप करोगे क्या? ना तो यह आपसे उठाया जा रहा हैं, ना ही घर में यह किसी काम आएगा. बस मेरा यह पूछना था कि वह महिला रोने लगी. उन्होंने बताया कि यह बर्तन उन्होंने अपने लिए नहीं, मायकें में रहने आई, अपनी विवाहित बेटी के लिए खरीदा हैं. जिसके ससुराल वालों ने पहले ही यह निर्देश दे दिया है कि अगर अब की बार खाली हाथ लौटी तो घर में घुसने नहीं देंगे. अब बेटी की खुशी और अपनी इज्जत के लिए, घरों में काम करने के बाद जो पैसे कट्ठे किए थे उनसे यह बर्तन खरीदा हैं.
इतने में रास्ता खुल गया और बस चल पड़ी. लेकिन उस महिला का रोना बंद नहीं हुआ.शायद वह अपना दर्द किसी से कह नहीं पा रही थी इसीलिए अंजान लोगों के सामने अपना सारा दुखड़ा रख दिया. कुछ महीने पहले हुए बेटी के विवाह और ससुराल वालों की निर्ममता के सारे किस्से उन्होंने सब आस-पास बैठे लोगों से बांट लिए. लगभग आधे घंटे तक वह महिला रोती रहीं. उनकी आपबीती सुनकर कई लोगों ने अपने अपने विचार रखें. कुछ कहते बेटी को वापस बुला लों, तो कोई कहता कि पुलिस में शिकायत दर्ज करा दों. सभी ने अपनी-अपनी राय दे दीं. पर उस महिला ने सिर्फ इतना ही कहा कि भगवान जिसे पैसा दें, बेटी भी उसी को ही दें, हम गरीबों को बेटी की कोई जरूरत नहीं होती.
अभी तक मैने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था कि दहेज जैसी परंपरा का अनुसरण अमीर और सभ्य वर्ग अपनी हैसीयत के दिखावा करने के लिए करता हैं वहीं एक निम्न वर्ग के लोगों के लिए यह कितना बड़ा अभिषाप और दर्द हैं. उस महिला के कथन ने ना चाहते हुए भी मुझे यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि क्या सच में बेटी होना माता-पिता के लिए अभिषाप हैं? मैं भी तो एक बेटी हूं, तो क्या मेरे माता-पिता भी ऐसा ही सोचते हैं?
यद्यपि महिलाओं की ऐसी दयनीय दशा पर अपनी सांत्वना व्यक्त करते हुए हमारी सरकारे उनकी स्थिति सुधारने के लिए नई-नई योजनाओं का निर्माण कर रही हैं. दहेज प्रथा के उन्मूलन के दावें करती हमारी सरकार शायद समाज की वास्तविक परिस्थितियों से पूरी तरह अंजान हैं, या उस तरफ ध्यान देना ही नहीं चाहती. महिलाओं को व्यावसायिक क्षेत्र में समान अवसर और राजनीति में आरक्षित सीटें देने का दम भरने वाली हमारी कल्याणकारी सरकारें यह भूल गई हैं कि स्त्री उत्थार और सशक्तिकरण का क्षेत्र केवल राजनैतिक और आर्थिक सुधार तक ही सीमित नहीं हैं. अगर हम यह सोचें कि कुछ महिलाओं को ताकत देकर हम सभी महिलाओं का उत्थार कर रहे हैं, तो ऐसा सोचना हमारे लिए नासमझी होगी. जमीनी स्तर पर महिलाओं की दशा इतनी खराब है कि किसी सचेत मनुष्य का ध्यान भ्रमित करने वाली योजनाओं पर जा ही नहीं सकता. महिलाओं को राजनैतिक और आर्थिक अधिकारों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है उनके लिए खुश और सम्मानपूर्वक समाज में रहने का अधिकार, आत्म-निर्भर होने का अहसास, खुले और सम्मानजनक वातावरण में सांस लेने का अधिकार.
सरकार का यह कहना कि अब महिलाओं को अपेक्षित दर्जा और महत्व हासिल हो गया हैं. तो उन्हें सच्चाई से अवगत कराने के लिए उस गरीब और लाचार महिला की आपबीती ही बहुत हैं. भले ही यह एक छोटी और सामान्य घटना हों, पर ऐसी घटनाएं हमें यह स्पष्ट कर देती हैं, कि सरकारी दावें और वायदे किस हद तक खोखले हो सकते हैं. साथ ही हमें यह भी समझ आ जाता हैं कि आज के आधुनिक मानसिकता और मॉडर्न होती सोसाइटी के संदर्भ में भी घरेलू तौर पर महिलाओं का दमन कोई कल की बात नहीं बल्कि आज की हकीकत हैं. असल में महिला सशक्तिकरण के हालात तब बनेंगे जब माता-पिता अपनी ही बेटी को बोझ समझने जैसी मानसिकता को त्याग देंगे.
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