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साबरमती एक्सप्रेस, बोगी नंबर-6

सरोकार
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godhra

27 फरवरी, 2002 सुबह सात बजे के आसपास, गुजरात के गोधरा स्टेशन पर खड़ी साबरमती एक्सप्रेस, जो अपने तय समय से कई घंटे देर से चल रही थी, के बोगी नंबर एस 6 को लगभग 1500 लोगों ने घेर पर उसमें आग लगा दी. इस अग्निकांड में 60 से ज्यादा लोगों की मौत हुई, जिसमें अधिकांश महिलाएं और बच्चे थे. कोच को आग के हवाले करने वाले लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ थे कि कोच एस 6 में कारसेवक और उनके परिवार वाले यात्रा कर रहे है. कोई हिंदू यात्री बोगी से बाहर ना निकल पाए इसीलिए योजना के अनुसार उन पर पत्थर भी बरसाए जाने लगे. इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि इस घटना को एक सोची-समझी साजिश के तहत अंजाम दिया गया. गुजरात पुलिस ने भी अपनी जांच में ट्रेन जलाने की इस वारदात को आईएसआई की साजिश ही करार दिया, जिसका मकसद हिन्दू कारसेवकों की हत्या कर राज्य में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करना था.


इस हत्याकांड ने गुजरात की सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया.


एक कहावत है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है. गुजरात के कई शहरों में भड़के साम्प्रादायिक दंगे गोधरा की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए. इन दंगों का कारण कुछ और नहीं बल्कि साबरमती एक्सप्रेस में जिंदा जलाए गए कारसेवकों की मौत का बदला लेना था. लेकिन कुत्सित वृत्ति वाली राजनीति ने इन दंगों को भी बड़े ही अमानवीय तरीके से धर्म-निरपेक्ष छवि को आहत कर देने वाली घटना के रूप में पेश किया. विदेशी चरित्र वाली मीडिया तथा वोट की राजनीति करने वालों ने गोधरा कांड की प्रतिक्रिया के रूप में उभरे गुजरात दंगों के बाद हिंदुओं को पूरे विश्व में दंगाइयों के रूप में प्रस्तुत कर दिया. और उस पर तुर्रा ये कि दंगों की बात करते समय कहीं भी ये नहीं कहा गया कि इसके पीछे गोधरा का भीषण नरसंहार जिम्मेदार था.


gujrat riotsगुजरात दंगों की बात करते समय हमेशा यही सुनने को मिलता है कि गुजरात जैसे शांत क्षेत्र को हिंदू आक्रमणकारियों और दंगाइयों ने मजहबी हिंसा का शिकार बनाया. अपने मंसूबे सिद्ध करने के लिए उन्होंने महिलाओं और बच्चों का भी लिहाज नहीं किया. पहली नजर में तो यही लगता है कि हिंदू धर्म अमानवीय और घृणित मानसिकता को पोषण दे रहा है. क्योंकि गुजरात दंगों का जिक्र करते समय इस तथ्य को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है कि गुजरात के दंगे स्वत: ही नहीं उभरे बल्कि वह गोधरा में हुए मानव दहन की प्रतिक्रिया स्वरूप थे.


साबरमती एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे निर्दोष और मासूम कारसेवक व उनके परिवार जिसमें छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल थे, को निर्मम तरीके से आग के हवाले करने वाले दंगाई मुसलमान ही थे. उन पर किसी ने निशाना नहीं साधा, लेकिन जब सरकार की नाकामी के कारण गुजरात में हिंदुओं ने मुसलमान आबादी को अपना निशाना बनाया तो वैश्विक स्तर पर हिंदू धर्म के लोगों को एक कट्टर और क्रूर धर्म के रूप में प्रचारित किया गया. जबकि भारत का इतिहास इस बात का गवाह है कि अति उदार और मानवता पर विश्वास करने वाले हिंदुओं ने कभी भी किसी सांप्रदायिक दंगे की शुरूआत नहीं की. उन्हें हमेशा हिंसा करने के लिए उकसाया ही जाता है. लेकिन हकीकत यह भी है कि जब भी हिंदुओं पर आक्रमण होता है तो उसे दरकिनार कर उनकी प्रतिक्रिया राजनीति और राजनीतिज्ञों को अपनी लोकप्रिय और निष्पक्ष छवि प्रस्तुत करने का एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान कर देती है. ऐसा प्रतीत होता है मानों उन्हें ऐसी घटना का ही इंतजार था.


riots in gujratराजनीति के क्षेत्र में मानवीय भावना जैसी कोई चीज मायने नहीं रखती. अगर कोई चीज महत्व रखती है तो वह है कुर्सी. इसीलिए वोट बैंक को दुरुस्त रखने के लिए हमेशा परिस्थितियों को उसी तरफ मोड़ दिया जाता है, जहां फायदा नजर आता है. इसीलिए गुजरात दंगों को भी मात्र राजनैतिक एजेंडे के रूप में ही प्रयोग किया गया जिसका परिणाम आज सभी के सामने है. पश्चाताप के रूप में नरेंद्र मोदी की नई ड्रामेबाजी और साबरमती एक्सप्रेस में मारे गए हिंदुओं की उपेक्षा. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं कि भारत अपनी तथाकथित धर्म-निरपेक्ष छवि को बचाने के लिए हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को नजरअंदाज करना ही बेहतर समझता है.


मेरा उद्देश्य गुजरात दंगों में हिंदू आक्रमणकारियों की भूमिका को न्यायसंगत करार देना नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर अकसर होने वाली राजनीति पर चोट करना है. बाहरी तत्व हमेशा हमारे देश की शांति को भंग करते हैं, हम आपस में लड़ते हैं और राजनीतिज्ञ इसका फायदा उठाते हैं. लेकिन यह सब कब तक चलेगा इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं देता?


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