Menu
blogid : 5462 postid : 131

देश द्रोही बयानों पर विरोध जाहिर किया जाए तो कैसे?

सरोकार
सरोकार
  • 50 Posts
  • 1630 Comments

anna andolanहाल ही में अन्ना और उनकी टीम ने भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने और सुशासन की स्थापना करने के उद्देश्य से देशव्यापी आंदोलन छेड़ा था. अनशन पर बैठ अन्ना ने सरकारी तंत्र और नाकरशाही व्यवस्था में व्याप्त कमियों के प्रति अपना विरोध जाहिर करते हुए आम जनता से भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े होने का आह्वान किया. निश्चित तौर पर जब देश की आबादी का इतना बड़ा हिस्सा अन्ना के साथ खड़ा हो, तो ऐसे में सरकार को अपने हथियार डालने ही थे.


भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ा मुद्दा है जो देश की साख और उसके नागरिकों के भविष्य को अंधकार में ढकेलता जा रहा है. स्वाभाविक है ऐसे में जब कोई इसके विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करेगा तो वह सामाजिक स्वीकार्यता और प्रशंसा का पात्र है. अन्ना और उनकी सिविल सोसाइटी के साथ भी यहीं हुआ. जनता ने उन्हें अपने लिए एक फरिश्ता समझ लिया, जो उन्हें भ्रष्टाचार जैसी बुराई से मुक्त करा सकते हैं.


लेकिन क्या भ्रष्टाचार का मुद्दा राष्ट्र की एकता और उसकी अखण्डता से बड़ा हैं?


attack on prashant bhushanप्रशांत भूषण, जो एक अधिवक्ता और अन्ना की टीम के सदस्य हैं, के बयानों से तो कुछ ऐसा ही लगता है. हाल ही में प्रशांत भूषण ने कश्मीर की समस्या को हल करने के लिए कश्मीर को भारत से ही अलग करने का सुझाव दे डाला. वाराणसी में संवाददाताओं से बात करते हुए प्रशांत भूषण ने कहा कि कश्मीर के लोगों को मुख्य धारा से जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए और अगर वो हमारे साथ नहीं आना चाहते तो उन्हें अलग कर दिया जाना चाहिए.


कश्मीर को अलग करने की बात करते हुए प्रशांत भूषण, जिनके सिर से अभी तक भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की सफलता का नशा उतरा नहीं हैं, शायद यह भूल गए कि कश्मीर की रक्षा करने के लिए नाजाने कितने शहीदों ने अपनी जान की परवाह नहीं की. अपने परिवारों को छोड़कर वह हर परेशानी में कश्मीर सीमा पर डटे रहें. कश्मीर को भारत से अलग करने की बात करना तक ऐसे शहीदों के बलिदान को ठेस पहुंचाना है. मीडिया की नजरों में चढ़ने के लिए राष्ट्र की अखण्डता पर प्रश्नचिंह खड़ करना देश-द्रोह से कम नहीं हैं.


किसी भी राष्ट्र के लिए उसका संविधान एक पवित्र पुस्तक के समान होता है, जिसके सिद्धांतों और दिए गए निर्देशों की पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है. हमारे संविधान में कही भी यह उल्लेख नही किया गया है कि जनमत संग्रह कर राष्ट्र को खण्डित किया जा सकता है. ऐसे में खुद कानून के ज्ञाता प्रशांत भूषण की यह टिप्पणी घृणित प्रतीत होती हैं.


उनके इस पर अपना विरोध जाहिर करते हुए श्री राम सेना के सदस्यों ने सुप्रीम कोर्ट में उनके चैंबर में घुसकर प्रशांत भूषण के साथ मारपीट की. प्रशांत भूषण जब एक टी.वी चैनल को इंटरव्यू देने के लिए बैठे थे तभी इन युवकों ने उनपर थप्पड़ों की बरसात कर दीं.


इस हिंसात्मक घटना को गलत प्रमाणित करने के भी कई पक्ष मौजूद हैं. कोई इसे प्रशांत भूषण की निजी राय कह सकता है, जिसपर आपत्ति जाहिर करना फिजूल हैं. कोई इसे बोलने की स्वतंत्रता पर आघात स्थापित कर सकता हैं. लेकिन एक सत्य यह भी है कि अगर ऐसे वक्तव्यों को निजी राय मानकर छोड़ दिया जाए तो यह देश की एकता के सामने विकट समस्या पैदा कर सकते हैं.


कोई भी प्रसिद्ध व्यक्तित्व जब ऐसे वक्तव्य देता है तो निश्चित तौर पर आम जन मानस पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है. इससे पहले भी अरुंधती राय जैसी जानी-मानी हस्तियां कश्मीर और नक्सल मुद्दे पर अपनी राय रख चुकी हैं. उनके बयानों और नक्सलियों के प्रति सांत्वना रखने के कारण ही आज ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं है जो नक्सलियों को मजबूर और शोषित समझने लगे हैं. वह इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं, कि नक्सली किसी भी रूप में सांत्वना के पात्र नहीं हैं. वह बच्चों, औरतों और असहाय लोगों को इतनी बुरी तरह प्रताड़ित करते है कि कठोरतम व्यक्ति की भी रुह कांप जाए. जो खुद शोषित है वो दूसरों के दर्द को समझता है उन्हें दर्द देता नहीं हैं. अगर प्रशांत भूषण जैसे लोगों के बयान को संजीदगी से लिया गया तो हो सकता है कल को कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए भी कई लोग राजी हो जाएं.


जब तक व्यक्ति जीवित है उसके मस्तिष्क में विचार आते रहेंगे, संभवत: वह उन्हें जग-जाहिर करने का प्रयत्न भी करेगा. ऐसे में हम किसी के विचारों को दबा तो नहीं सकते. भारत में शांति पूर्वक बोलने का अधिकार सभी नागरिकों के पास है, इसीलिए इन बयानों को रोका नहीं जा सकता. मीडिया भी अपनी संवेदनहीनता का परिचय यदा-कदा देती ही रहती हैं. टीआरपी के खेल में इस मसले को भी बेरोकटोक भुनाया जा रहा है.


देश-द्रोही बयानों के प्रति अपना विरोध जाहिर ना किया जाए तो ऐसे बयानों को रोक पाना कठिन है. आज प्रशांत भूषण है कल कोई और आएगा. भ्रष्टाचार एक अलग मुद्दा है. हम भ्रष्टाचार को सहन कर सकते हैं, पर देश के बंटवारे को नहीं.

ऐसे में सवाल उठता है कि अगर हिंसात्मक विरोध नहीं तो फिर क्या विकल्प हैं?


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh