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व्यवस्था का नासूर बन चुके भ्रष्टाचार से जनता को छुटकारा दिलवाने के लिए जब समाजसेवी अन्ना हजारे ने सरकार के समक्ष एक मजबूत और निष्पक्ष लोकपाल बनाने की मांग रखी तो उनके इस उद्देश्य को जन-सामान्य द्वारा बहुत सराहा गया. अन्ना ने अहिंसा के सिद्धांत को अपनाकर अनशन को अपने विरोध का सहारा बनाया तो जनता ने भी अनशन कर भ्रष्ट सरकारी तंत्र के विरुद्ध अपनी नाराजगी व्यक्त की.
लंबे अर्से से भ्रष्टाचार से पीड़ित जनता के भीतर एक सुव्यवस्थित और निष्पक्ष शासन प्रणाली जैसी आस जगने लगी. लेकिन किसे पता था कि अन्ना और उनकी टीम का यह आंदोलन उनकी अपनी ही राजनैतिक मंशाओं की बलि चढ़ जाएगा.
अन्ना हजारे एक साफ छवि वाले समाज सेवक हैं लेकिन जिन लोगों से वह घिरे हुए हैं या जिनके कहने पर वह अपनी रणनीतियां तय करते हैं वह स्वयं अब भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रहे हैं. इतना ही नहीं कुछ समय पहले अन्ना के रूप में हम जिस भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले दृढ़ निश्चयी व्यक्ति को देखते थे वहीं आज के अन्ना हजारे के कथनों और कृत्यों में उल्लेखनीय परिवर्तन आए हैं वह भी किसी से छिपे नहीं हैं. उनका कहना था कि वह जनलोकपाल के लिए आमरण अनशन पर बैठेंगे, लेकिन सरकार के एक आश्वासन के बाद ही वह रामलीला मैदान से हट गए वह भी आधे-अधूरे मांगों को पूरा करने के वादे के साथ. अन्ना इतने अपरिपक्व तो नहीं कहे जा सकते कि वह इस बात को समझ नहीं सके कि लोकपाल का उद्देश्य सिद्ध होने से पूर्व कदम पीछे खींचना उनके पक्ष को कमजोर साबित कर सकता है और इस लड़ाई को हार में बदल सकता है. लेकिन फिर भी उन्होंने अनशन समाप्त कर स्वयं अपनी प्रतिबद्धता और दृढ़ता पर प्रश्नचिंह लगाया.
भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम की शुरूआत के समय अन्ना हजारे एक सत्याग्रही के रूप में अपनी पहचान बनाने लगे थे, उन्हें दूसरा गांधी या गांधी से भी बढ़कर जैसी उपाधियों से नवाजा जा रहा था लेकिन समय के साथ-साथ अन्ना हजारे के विषय में उनके समर्थकों की राय भी अब बदलने लगी है.
कुछ महीने पूर्व जिस आंदोलन की शुरूआत इतने जोर-शोर से की गई थी, जिसके बाद आम जन-मानस की उम्मीदें बढ़ने लगी थीं, आज वही आंदोलन पूरी तरह भटक चुका है. आज वह जनलोकपाल के मुद्दे को लेकर नहीं बल्कि अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को लेकर ज्यादा चर्चा में रहते हैं.
मीडिया यह भली-भांति समझती है कि बेबस जनता अन्ना को सुनना और देखना आज भी पसंद करती है इसीलिए किसी ना किसी मसले को उजागर कर वह अन्ना को दर्शकों के समक्ष परोसती ही रहती है. टीम अन्ना भी लाइम-लाइट में आने का कोई ना कोई पैंतरा अपनाती ही रहती है. लेकिन दुख की बात तो यह है कि इन सभी पैंतरों में जन-लोकपाल कहीं खो सा गया है.
जैसा की शुरूआत में ही देखा गया था कि अन्ना का समर्थन करने वाले, उनकी एक आवाज पर अपने ऑफिस और शिक्षा संस्थानों से छुट्टी लेकर अनशन पर बैठने वाले लोग बौद्धिक और सुशिक्षित हैं, इसीलिए अपनी सूझ-बूझ और समझ के आधार पर वह स्वयं इस बात को समझने लगे हैं कि अन्ना और उनकी टीम जब स्वयं भ्रष्टाचार से घिरी हुई है तो वह कैसे सामान्य जनता को इस नासूर से मुक्त करवा सकती है. संभवत: अन्ना के आगामी अनशन पर उनके समर्थकों की इस बदली हुई मानसिकता का प्रमाण मिल सकता है. इस बार अन्ना और उनके दल के साथ खड़े ना होकर वह स्वयं टीम अन्ना के प्रति अपना विरोध जता सकते हैं.
सही तथ्य तो यह है कि यदि आप किसी जनहित के कार्य में लगे हैं और भ्रष्टाचार को मिटाने का संकल्प लेकर मैदान में उतरे हैं तो सबसे पहले आपको अनुकरणीय उदाहरण पेश करना होगा. आपको नैतिक व चारित्रिक दृढ़ता पेश करनी होगी जो कर सकने में टीम अन्ना पूरी तरह असफल साबित हुई है.
हो सकता है कुछ लोगों को अन्ना की यह आलोचना निरर्थक लगे लेकिन अगर टीम अन्ना का उद्देश्य मात्र जनलोकपाल की स्थापना करना है तो वह फिजूल के राजनैतिक पचड़ों में पड़कर अपना समय बर्बाद करने के साथ-साथ मीडिया की सुर्खियां क्यों बटोर रही है? अब तो वह सरकार के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगे हैं, क्या ऐसा करना लोकपाल की राह को आसान कर सकता है?
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