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पॉलिटिकल स्टंट है पिछड़ा होना!!

सरोकार
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वैसे तो सरकारी शिक्षण संस्थानों और नौकरियों में दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण देने जैसा मसला हमारे लिए नया नहीं है. लेकिन हाल ही में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाली लोकपाल समिति में तथाकथित दलित वर्ग के लिए स्थान आरक्षित रखने जैसी मांग ने एक बार फिर आरक्षण जैसी विवादास्पद व्यवस्था पर एक नई बहस छेड़ दी है.


dalitsअगर दलित या पिछड़े वर्ग के शाब्दिक अर्थ पर गौर करें तो यह बात स्वत: प्रमाणित हो जाती है कि वे लोग जो किसी कारणवश शैक्षिक या आर्थिक दृष्टिकोण से अन्य लोगों की अपेक्षा पीछे रह जाते है उन्हें हम दलित या पिछड़ा कह सकते हैं. अगर यह परिभाषा सही है तो इसके अनुसार  दलित या पिछड़ा कोई भी हो सकता है. क्योंकि यह मात्र एक क्लास की बात है ना कि कास्ट या जाति की और क्लास तो बदलती ही रहती है.


जाति वह होती है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता है और यह कभी भी बदल नहीं सकतीं. किसी की जाति कभी भी पिछड़ी या अगड़ी नहीं हो सकती. लेकिन क्लास या स्तर जिसके अनुसार कोई संपन्न या  जरूरतमंद जैसी श्रेणियों में विभाजित किया जाता है वह स्वाभाविक रूप में गतिशील होती हैं. अगर आज कोई व्यक्ति बहुत अमीर और ताकतवर है तो ऐसा भी मुमकिन है कि कल उसे ही किसी सहायता की जरूरत पड़ जाए तो क्या हम इस आधार पर उसकी सहायता नहीं करेंगे क्योंकि वह एक अमीर परिवार में पैदा हुआ है.  ऐसे ही अगर कोई व्यक्ति निर्धन और वंचित परिवार में जन्मा है और अपनी मेहनत के बल पर उसने एक उच्च मुकाम हासिल कर लिया है तो क्या उसे हम हमेशा ही पिछड़ा और दलित की श्रेणी में ही रखेंगे?


यह व्यवस्था किसी भी रूप में न्यायसंगत नहीं है. सामाजिक स्तर, जिसके अनुसार कोई व्यक्ति शोषक या शोषित कहलाता है वह कभी भी समान या स्थिर नहीं रहता तो फिर कैसे कोई व्यक्ति उम्रभर दलित कहलाया जा सकता है. हमारी अर्थव्यवस्था अभी तक मुट्ठीभर लोगों के हाथ में ही है ऐसे में आर्थिक रूप से तो हमारी आधी से ज्यादा आबादी दलित और पिछड़ी ही हुई. हां राजनीति में इन शब्दों और श्रेणी विभाजन का महत्व बहुत ज्यादा है क्योंकि यह हमारे राजनेताओं के वोटबैंक का निर्माण जो करते हैं.


दलित या पिछड़ा होने जैसे शब्द अपने किसी भी स्वरूप में जाति से संबंध नहीं रखतें बल्कि यह तो व्यक्ति के सामाजिक स्तर को दर्शाते हैं. जिन्हें भारतीय राजनीति में हमेशा से ही एक अभेदीय और लाभकारी फॉर्मुले के रूप में उपयोग किया जा रहा है.


dalit mayawatiजिस व्यवस्था की नींव अंग्रेजी शासनकाल में ही रखी जा चुकी थी आज बिना सोचे-समझे उसका अनुसरण किया जा रहा है. अब लोकपाल समिति की ही बात करें तो यह समिति अपने आप में बहुत शक्तिशाली और जिम्मेदार होगी. ऐसे में जाहिर है इसमें किसी अयोग्य या अपरिपक्व व्यक्ति को शामिल नहीं किया जाएगा.  इसकी अपेक्षा इस दल में ऐसे अनुभवी व्यक्ति शामिल किए जाएंगे जो बड़े-बड़े सरकारी ओहदों और विभागों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि वे शिक्षा, धन या सामाजिक स्तर किसी भी रूप में पिछड़े या दमित होंगे. फिर ऐसे में लोकपाल समिति में आरक्षण देने की बात कहा तक जायज है? आप किस आधार पर किसी व्यक्ति को पिछड़ा कह सकते हैं. जो सरकारी रियायतें और सुविधाएं एक गरीब ब्राह्मण कोमिलनी चाहिए हैरानी की बात है कि उन सभी सुविधाओं का फायदा एक संपन्न और ताकतवर तथाकथित दलित व्यक्ति को मिलता है.


अब उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती का ही उदाहरण ले लीजिए. आज ही इनसे ज्यादा ताकतवर महिला कोई होगी. लेकिन फिर भी यह एक दलित है, दलितों की प्रतिनिधि है. एक संपन्न और शक्तिशाली महिला कैसे समाज के दबे-कुचले लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकती है.


दरअसल दलित शब्द आपकी वर्तमान आर्थिक और सामजिक स्थिति और वंचित जीवन को दर्शाता है. इसे उम्रभर के लिए ग्रहण कर लेना स्वयं अपने स्वाभिमान और अस्मिता के साथ खिलवाड़ है.


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