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बंदिश ही सही, जिम्मेदारियों का अहसास तो है

सरोकार
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अभी कुछ दिनों पहले मुझे जागरण जंक्शन की नवागंतुक ब्लॉगर अनुराधा गोयल की रचनाकाश! मैं अकेली होती पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ और लगे हाथ अपने अगले ब्लॉग को लिखने के लिए विषय भी मिल गया. लेखिका की लेखन क्षमता पर मुझे कोई संदेह नहीं है, क्योंकि उन्होंने बड़ी सहजता के साथ अपनी भावनाओं और अनुभवों को शब्द प्रदान किए हैं. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे उनकी भावनाएं थोड़ी विचित्र लगीं, उनके द्वारा लिखे गए लेख पर मैं अपने विचार और व्यक्तिगत अनुभवों को प्रकट करने की कोशिश कर रही हूं, आप सभी सम्मानित ब्लॉगरों की प्रतिक्रिया और विचार  अपेक्षित हैं.


indian familyमैं दिल्ली के एक मध्यमवर्गीय परिवार से संबंध रखती हूं. एकाकी परिवार होने के कारण घर में केवल माता-पिता और एक छोटा भाई है. यकीन मानिए मुझे कभी भी यह अहसास नहीं करवाया जाता कि मैं घर में अपने छोटे भाई से बड़ी हूं. जब भी मुझे कहीं बाहर जाना होता है तो उसके लिए मुझे अपने माता-पिता से तो आज्ञा लेनी ही पड़ती है, साथ ही मेरा भाई भी मुझसे जाने का कारण जानने और घर वापिस आने का समय पूछना नहीं भूलता.


अनुराधा जी का कहना है कि वह घर में सबसे छोटी हैं इसीलिए उन्हें अभिभावकों के सवालों से जूझना पड़ता है, मैं तो बड़ी हूं और हमेशा से आत्म-निर्भर रही हूं लेकिन फिर भी शायद ही कोई दिन ऐसा हो जहां मुझे घर पर अपने माता-पिता, कभी-कभार तो घर में आए अन्य संबंधियों के फोन कॉल रिसीव ना करने पड़े हों. मेरे अभिभावक यह भली प्रकार जानते हैं कि ऑफिस में छुट्टी मिलना इतना आसान नहीं है इसीलिए मैं रोज ऑफिस आती हूं, लेकिन फिर भी वह दिन में एक बार फोन कर यह अवश्य पूछकर कि मैं कहां हूं, क्या कर रही हूं, खुद को संतुष्ट कर लेते हैं. लेकिन मुझे उनका फोन करना कभी भी बुरा नहीं लगा, हां कभी काम के बीच में उनका फोन और उस पर यह सवाल मुझे क्रोधित जरूर करते हैं, परंतु उनकी संतान होने के कारण मैं उनके स्वभाव को भी अच्छी तरह जानती हूं. इसीलिए बहुत जल्दी क्रोध शांत भी हो जाता है. वहीं अगर ऑफिस से घर पहुंचने में थोड़ी भी देर हो जाए तो एक निश्चित समय के बाद उनके हर 10 मिनट में फोन आने शुरू हो जाते हैं.


शायद आप यकीन ना करें लेकिन जैसा व्यवहार मेरे अभिभावक मेरे लिए रखते हैं, दिन में एक-दो बार कॉल करना, देर से घर जाने पर परेशान होना और जब घर पहुंच जाओ तो डांट पड़ना, वैसा ही बर्ताव मेरे भाई के साथ भी किया जाता है. मैं तो मेट्रो से आती जाती हूं इसीलिए मेरे माता-पिता मुझसे ज्यादा मेरे भाई, जो बाइक का प्रयोग करता है, के लिए परेशान रहते हैं. उसे तो ऑफिस पहुंचने पर घर में सूचित करना पड़ता है और वहां से निकलने से पहले भी घरवालों को बताना पड़ता है, इसके अलावा दिन में कभी भी उसे फोन घुमा दिया जाता है. अब इसमें कहीं भी छोटे-बड़े, लड़का-लड़की जैसी कंडीशन लागू नहीं होती.


मैंने भी पत्रकारिता की है, जिसे करने से पहले मुझे भी अपने परिवार का विरोध झेलना पड़ा था. परिवार के कुछ सदस्यों का कहना था टीचर बनना सबसे बेहतर है, जॉब का समय भी सही रहता है. तो कुछ मुझे किसी और पेशे में जाने की सलाह देते थे. सिवाय मेरे माता-पिता के किसी भी अन्य संबंधी ने पत्रकारिता के चयन में सहयोग नहीं दिया. यहां तक कि मुझे आज भी सभी की बातें सुननी पड़ती हैं. पर मुझे कोई परेशानी नहीं होती. मेरे लिए मेरा परिवार, माता-पिता, छोटा भाई सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, जिनके बिना मैं अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती.


अब बात मूल मुद्दे की, मुझे नहीं लगता संतान के प्रति अभिभावकों का ऐसा व्यवहार संतान की स्वतंत्रता को बाधित करता है, इसके विपरीत यह हमारे लिए उनकी चिंता और जिम्मेदारी को ही प्रदर्शित करता है. जरा खुद को अपने माता-पिता की जगह पर रख कर सोचिए सारी गलतफहमी खुद ब खुद दूर हो जाएगी. क्योंकि शायद ही कोई माता-पिता अपने बच्चे की खुशियों में बाधा बनने के लिए कोई कार्य करते हों. माता-पिता के लिए अपने सभी बच्चे समान होते हैं. अगर हम लड़का-लड़की में भेदभाव जैसी बातों पर ध्यान ना दें और समाज में व्याप्त अपराधों पर नजर डालें तो कौन से अभिभावक अपने बच्चों की कुशलता को लेकर चिंताग्रस्त नहीं रहते होंगे? विशेषकर महिलाओं के प्रति बढ़ती आपराधिक वारदातें हमें परेशान न करें लेकिन जिन अभिभावकों की बेटी देर रात को घर लौटती है उनकी चिंता को बंदिश का नाम देना, उनकी भावनाओं को आहत करना ही है.


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