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महात्मा गांधी राष्ट्रपिता कब बने? यह सवाल आजकल समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों की सुर्खियां तो बटोर ही रहा है लेकिन शिक्षाविदों और सरकार के लिए तो यह प्रश्न उनके गले की हड्डी से कम नहीं रहा है. कुछ दिनों पहले जब लखनऊ की एक बच्ची को इस सवाल का जवाब अपने अध्यापकों से नहीं मिला तो उसने इस सिलसिले में एक आरटीआई डाल कर प्रधानमंत्री से यह प्रश्न पूछ डाला कि “माना कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं लेकिन आखिर उन्हें यह उपाधि दी कब गई?” प्रधानमंत्री कार्यालय में भी किसी के पास इस सवाल का जवाब नहीं है. पीएमओ ने इस अर्जी को गृह मंत्रालय भेजा लेकिन वहां भी कोई इस प्रश्न का हल नहीं निकाल पाया. अंत में गृह मंत्रालय ने भी इस अर्जी को नेशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया भेज दिया, जहां भारत की आजादी से जुड़े दस्तावेज सहेज कर रखे गए हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश उस बच्ची को यहां से भी अपने सवाल का जवाब नहीं मिल पाया.
इस संदर्भ में मुझे तुर्की के कमाल पाशा, जिन्हें प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात तुर्की के अधुनिकीकरण के उपलक्ष्य में अतातुर्क की उपाधि से नवाजा गया था, का उदाहरण याद आ गया. प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जब तुर्की के हालात बद्तर होते जा रहे थे उस समय कमाल पाशा ने आगे बढ़कर राज्य को सुधारने का जिम्मा अपने हाथ में लिया था. कमाल पाशा ने तुर्की की बिगड़ते और पूरी तरह नकारात्मक हो चुके हालातों को सही दिशा देने के लिए बेजोड़ और सफल प्रयास किए. उन्होंने मात्र कुछ वर्षों के भीतर ही तुर्की जैसे प्रतिक्रियावादी देश की तस्वीर पूरी तरह बदल दी. इस्लामी देशों में महिला उत्थान जैसा विषय हमेशा ही विवादों से घिरा रहता है लेकिन कमाल पाशा ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए स्त्री-शिक्षा को तो प्रचारित किया ही लेकिन साथ ही पर्दा प्रथा की समाप्ति और उन्हें पुरुषों के समान दर्जा दिलवाने के लिए सफल योगदान दिया. आज तुर्की की जो मॉडर्न छवि हमारे सामने है वह कमाल पाशा के प्रयासों का ही परिणाम है. कमाल पाशा के इन्हीं विशेष योगदानों से प्रभावित होकर स्थानीय लोगों ने उन्हें “अतातुर्क” कहकर संबोधित किया. वैधानिक ना होने के बावजूद यह उपाधि कमाल पाशा के नाम के साथ जुड़ गई. किसी के पास भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं हो सकता कि आखिर कमाल पाशा को अतातुर्क कब और किस दिन बनाया गया.
यही हालात अब भारतीय लोगों के सामने है. सरकार के पास इस प्रश्न का उत्तर ना होना कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता कब बने, निर्विवाद रूप से हैरान कर देने वाला है लेकिन इस मसले को जिस तरह से उठाया जा रहा है वह पूर्णत: गलत ही कहा जाएगा क्योंकि महात्मा गांधी कभी भी औपचारिक रूप से राष्ट्रपिता घोषित नहीं किए गए थे. देश के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और स्वतंत्रता आंदोलन में उनके अतुल्य योगदान से प्रभावित होकर सर्वप्रथम सुभाष चंद्र बोस ने उन्हें राष्ट्रपिता संबोधित किया था. वर्ष 1943 में जब सुभाष चंद्र बोस अपनी फौज के साथ कोहिमा पहुंचे थे तब उन्होंने महात्मा गांधी से यह आग्रह किया था कि “राष्ट्रपिता” अब हम अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की कार्यवाही आरंभ करने वाले हैं, हमें आपका आशीर्वाद चाहिए.
अगर महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति, जिनकी नेतृत्व क्षमता और देश के प्रति प्रतिबद्धता को सर्वआयामी तौर पर स्वीकार कर लिया गया था, को प्रेम और आदरपूर्वक किसी उपाधि से संबोधित किया जाता है तो इस पर किसी भी रूप में कोई भी विवाद खड़ा किया जाना सही नहीं है. निश्चित ही सरकार की ओर से महात्मा गांधी को औपचारिक रूप से राष्ट्रपिता घोषित कर दिया जाना चाहिए. लेकिन यह बात भी विचारणीय है कि सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्तियां ना तो संविधान में दर्ज हैं और ना ही इनका कोई लिखित दस्तावेज ही किसी के पास हो सकता है, ऐसे में दिन और दिनांक जैसे मानक क्या औचित्य रखते हैं?
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