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पूंजीवाद के सर्वश्रेष्ठ एजेंट के रूप में उभरे थे महात्मा गांधी !!

सरोकार
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इस बात पर विचार और विमर्श हमेशा होते रहते हैं कि आज के समय में गांधी दर्शन का क्या औचित्य है? लेकिन इस सवाल की प्रासंगिकता को हम हर दिन देखते और महसूस कर सकते हैं. आय का असमान वितरण, किसी के पास इतना धन है कि वह पालतू जानवर को भी ब्रांडेड बिस्किट खिला सकता है, तो कोई परिवार के लिए दो वक्त की रोटी अर्जित करने के लिए पूरा दिन मेहनत करता है. कोई आलीशान घरों में रहता है तो किसी के छोटे से घर को भी अवैध करार देकर हटवा दिया जाता है. आज हमारी पीड़ित आत्मा की आवाज उन्हीं महान गांधी की ही देन है.


mahatmaमोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें हम राष्ट्रपिता और महात्मा गांधी कहकर पुकारते हैं, ने जिस चतुराई के साथ आम जनता को मूर्ख बनाया शायद वह किसी और व्यक्ति के लिए संभव नहीं था. पूंजीवाद के मसीहा बनकर उभरे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने वह कर दिखाया जो दुनियांभर के पूंजीवादी कभी सपने में भी नहीं सोच सकते थे. आम जनता और पूंजीवाद के आदर्शों में अंतर्विरोधों का सिलसिला बहुत पुराना था, जो गांधी जी से पहले किसी भी रूप या परिस्थिति में जनता द्वारा स्वीकृत नहीं किया जा रहा था. बस यहीं से गांधी जी द्वारा जनता के साथ विश्वासघात का सिलसिला शुरू हो गया.


जनता को न्यूनतम साधनों में जीना सिखाने वाले गांधी साधारण वस्त्र और खाना खाते थे, लेकिन ताउम्र वह  Bentley गाड़ियों में घूमे. बिरला भवन जैसे आलीशान आवास में रहे यहां तक कि उनका देहांत भी बिरला मंदिर में ही हुआ. ऐसा नहीं है कि गांधी जी से पहले पूंजीवाद का समर्थक कोई विचारक या चिंतक नहीं हुआ, लेकिन उनमें से कोई भी जनता के दिलों में पूंजीवाद के लिए स्थान नहीं बना पाया.


वर्ष 1906 में जब देश में स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई उस समय गांधी जी भारत में नहीं बल्कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और काले लोगों को अधिकार दिलवाकर वहां पूंजीवाद को स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे. भारत आते ही उन्होंने अंग्रेजी सेना में भारतीयों की भर्ती करवाने का बीड़ा उठाया. इसके पीछे भी उनका उद्देश्य स्वयं को पूंजीवाद का समर्थक घोषित करवाके अंग्रेजों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना था. लेकिन महात्मा गांधी के सादे सूती वस्त्रों से प्रभावित होकर रबिंद्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा का दर्जा दे दिया.


चंपारन सत्याग्रह में छुट-पुट मांगे मनवाकर वह संतुष्ट हो गए और बाद में अंग्रेजी मीडिया ने उन्हें इतना अधिक प्रचारित किया कि वह एक राष्ट्रनायक के रूप में उभरने लगे. फिर शुरूआत हुई असहयोग आंदोलन की, कहने को यह असहयोग आंदोलन था लेकिन इसमें भी उन्होंने अंग्रेजों का ही साथ दिया. गांधी यह जानते थे कि जब इतनी भारी संख्या में जनता इस आंदोलन से जुड़ेगी तो अंग्रेजों के विरुद्ध उनके आक्रोश को दबाना बेहद मुश्किल हो जाएगा इसीलिए उन्होंने अहिंसा को ही आंदोलन की सबसे पहली शर्त बता जनता पर थोप दिया. जबकि वह स्वयं भी यह जानते थे कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए आक्रोश और हिंसा बेहद जरूरी है.


निश्चित तौर पर गांधी जी का उद्देश्य स्वदेशी के नाम पर भारतीय पूंजीपतियों को बेहतरीन अवसर मुहैया कराना था, उन्हें भारत समेत विभिन्न देशों में अपनी कंपनियां स्थापित करने का अवसर देना था. हम इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि इन सब के पीछे गांधी जी यह चाहत कि पूंजीवाद केवल इंगलैंड में ही नहीं भारत में भी मजबूत नींव बना ले, विद्यमान थी.



bhagath_081411-1गांधी दर्शन में उग्रवाद और हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है. इसीलिए उन्होंने भगत सिंह जैसे कट्टर समाजवादी क्रांतिकारी को, जो भारत में समाजवाद स्थापित करने के पक्ष में था, पूंजीवाद के लिए खतरा बन सकता था, बचाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया. गांधी जी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनके एक इशारे पर भगत सिंह की फांसी रुक सकती थी लेकिन उन्होंने अपने मार्ग के सबसे बड़े कांटे भगत सिंह को हटाकर ही सांस ली.


आज भी पूंजीवाद पर आधारित भारतीय और विदेशी संस्थान गांधी जी के आदर्शों पर शोध करते हैं. Gandhian Thought of Trusteeship पूंजीवाद को संरक्षण देने वाला सबसे खतरनाक फंडा है. जिसके अंतर्गत सारी धन संपत्ति और साधन एक ही संस्था को सौंप दिए जाते हैं और आम जनता को सिर्फ प्रलोभन दिए जाते हैं. ऐसे प्रलोभन जो उसे अपने साथ हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज तक उठाने नहीं देते. उनका यह सिद्धांत पूंजीवाद की प्राथमिकताओं को पूरी तरह समर्थन देता है.


अमानवीय पूंजीवाद की मजबूत होती जड़ें उसी कथित महात्मा ने तैयार की थी जिसको आज पूरी दुनिया पूज्यनीय मानती है. बेबस इंसानों की चीखती आवाजें कितनी आसानी से महात्मा के अहिंसा के सिद्धांत ने दबाकर पूंजीपतियों के लिए मुक्ति और विकास का मार्ग खोल दिया कि आज हम समाजवाद पर पूंजीवाद के अधनायकत्व के बावजूद उसी का गुणगान करते नजर आते हैं.


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