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एक लावारिश बिना मां-बाप का बच्चा क्या खुद ही भिखारी बनने का फैसला कर लेता है? बिना किसी छत के भूखे पेट खुले आसमान के नीचे गुजारने वालों की तकदीर में जिल्लत और तिरस्कार के सिवा और क्या होता है तिस पर हमारी मरी हुई संवेदनाओं से निकले लफ़्ज जब उन्हें नसीहत देते हैं तो शायद एक बार उन्हें बनाने वाले भगवान भी कह उठते होंगे “वाह रे इंसान”
भारत के संविधान को हम एक पवित्र ग्रंथ की तरह सम्मान देते हैं. इसमें साफ तौर पर यह अंकित है कि भारत देश की सीमा में रहने वाले सभी लोग एक समान हैं. धर्म, वर्ग, लिंग आदि किसी भी आधार पर उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव करना कानूनन अपराध माना जाएगा. यही वजह है कि आज जाति प्रथा को समाप्त करने और महिलाओं को भी पुरुषों की तरह समान अधिकार दिलवाने के लिए निरंतर प्रयास किए जा रहे हैं. लेकिन हमारे समाज का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसके बारे में बात करना कोई जरूरी तक नहीं समझता. प्रगतिशील भारत की तेज होती गति में बहुत पीछे छूट चुका यह अंग वह है जिन्हें हम भिखारी कहते हैं. सड़क पर रहने वाले इन लोगों को अपनी मौलिक आवश्यताएं पूरा करने का अधिकार तो नहीं है इसीलिए कहीं वे भूख से तड़प-तड़प कर दम ना तोड़ दें, वह दूसरे लोगों से भीख मांगकर अपना पेट भरने का प्रयत्न करते हैं. वैसे तो हम जैसे तथाकथित सिविलाइज्ड लोगों की भाषा में यह लोग इंसान तो नहीं कहे जा सकते लेकिन हम जैसे ही दिखने वाले इन लोगों की हर छोटी जरूरत भारत की स्वार्थी राजनीति के भारी-भरकम हितपूर्ति के नीचे कहीं दब गई है.
हमारे समाज की विडंबना ही यही है कि जब-जब भारत की राजनीति असफल साबित हुई है उसकी असफलता को आम जनता को ही ढोना पड़ा है. भिक्षावृत्ति एक अपराध, यह वे पंक्तियां हैं जो कभी पोस्टरों तो कभी विज्ञापनों द्वारा अकसर दिखाई दे जाती हैं, इन पंक्तियों को पढ़कर हम भिखारियों को घृणा की दृष्टि से देखने लगते हैं, लेकिन क्या हमने कभी यह सोचा है कि हमारी घृणा का वास्तविक हकदार आखिर है कौन, वो जो अपनी भूख मिटाने के लिए 1-1 रुपए के लिए लोगों के सामने हाथ फैलाते हैं, धूप, बारिश, तूफान हर मौसम में आसमान को ही अपनी छत समझकर रहते हैं, कूड़े के ढेर से खाने का सामान एकत्रित कर खाते हैं या फिर वो लोग जो इनकी ऐसी हालत के लिए जिम्मेदार हैं?
कुछ देर के लिए जिस जगह से गुजरने पर हम अपनी नाक रुमाल से ढक लेते हैं वहां यह लोग अपनी पूरी जिंदगी बिता देते हैं, लेकिन जब किसी को दोषी ठहराने की बात आती है तो हम इन्हें ही साफ-सुधरे शहर की गंदगी समझ लेते हैं. इनके जीवन को सुधारने के स्थान पर हम इनके जीवन को ही कोसते रहते हैं.
सड़क पर जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए ना तो राशन कार्ड की व्यवस्था है और ना ही पहचान पत्र की इसीलिए अब तो सरकार भी उन्हें तरक्की करते भारत देश का नागरिक नहीं मानती. अब जब वह भारत के नागरिक ही नहीं हैं तो सरकार उन्हें बराबरी का अधिकार कैसे दे सकती है?
सरकार की नजर में भिक्षावृति एक अपराध है और भीख मांगने वाले लोग एक अपराधी, लेकिन हैरत की बात तो यह है कि इन अपराधियों के लिए तो जेलों में भी कोई जगह नहीं है. उन्हें यूं ही सड़कों पर सड-अने के लिए छोड़ दिया जाता है. भिक्षावृत्ति को आपराधिक दर्जा देने के अलावा हमारी सरकार ने कभी उनकी ओर, उनके जीवन में व्याप्त मर्म की ओर ना तो कभी ध्यान दिया और ना ही उनके लिए किसी भी प्रकार की कोई योजना बनाई. सरकार ही क्यों हम अपनी ही बात कर लेते हैं, समाजिक व्यवस्था को ताने देने के अलावा हम करते भी क्या है. सड़क पर कोई भीख मांगता है तो हम उसे लेक्चर सुना देते हैं कि कुछ काम कर लो, लेकिन आप ही बताइए क्या कोई खुशी से अपने आत्म-सम्मान को किनारे रखकर कटोरा हाथ में उठाता है? हम उन्हें यह समझाते हैं कि कुछ काम करो भीख मांगना अच्छी बात नहीं है तो कुछ लोग ऐसे भी हैं जो उन्हें दुत्कार कर अपनी शान बढ़ाते हैं.
समाज की गंदगी समझे जाने वाले यह भिखारी सड़क पर ही पैदा होते हैं, वहीं अपने रिश्ते बनाते हैं और कभी बीमारी से तो कभी भूख से वहीं मर जाते हैं. लेकिन इनकी ओर कभी कोई ध्यान नहीं दिया जाता है और भविष्य में भी ऐसी उम्मीद करना आसमान छूने जैसा ही है.
बड़ी-बड़ी बातें करने वाले सरकारी नुमाइंदों के साथ-साथ शायद अन्य लोग भी जिन्हें आजकल हम समाज सुधारक कहते नहीं थक रहे उनके सामने भी जब कोई भिखारी भीख मांगने आता है तो वह उसे कभी पैसे देकर तो कभी दुत्कार कर अपनी गाड़ी के शीशे बंद कर लेते हैं. लेकिन शोहरत और संपन्नता से भरे अपने जीवन में वापस लौटने के बाद उन्हें कुछ याद नहीं रहता और बात फिर वहीं की वहीं रह जाती है कि भिक्षावृत्ति अपराध है और भीख मांगने वाले अपराधी.
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