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“कम से कम पैसों में गुजर-बसर, अहिंसा और शांति के साथ संतुष्ट रहने का महामंत्र, भारी तंगी और अंतहीन समस्याओं के बावजूद भी अपनी नियति के साथ समझौता करके अपने नियत कर्तव्यों को करते जाना, इन गांधीवादी सूत्रों के महान अनुसरणकर्ता अन्ना हजारे एक नए पूंजीवाद समर्थक और कॉरपोरेट्स की पहली पसंद बनने के द्वार पर खड़े हैं.”
प्रख्यात समाज सेवक अन्ना हजारे जिन्हें आम जनता ने कभी महात्मा गांधी के समकक्ष खड़ा कर दिया था, आज बड़ी ईमानदारी और संजीदगी के साथ महात्मा गांधी द्वारा स्थापित पूंजीवाद समर्थक फॉर्मूले का अनुसरण कर रहे हैं. आजादी के उस दौर में जब पूंजीवाद कड़ी मशक्कत के बाद भी भारत में अपनी जड़ें स्थापित नहीं कर पा रहा था तो ऐसे में गांधी जी ने अपने प्रयासों द्वारा देश में पूंजीवाद की औचित्यता को स्थापित किया. गांधी जी द्वारा स्थापित यह सिलसिला आज अन्ना हजारे द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है.
क्यों अन्ना बन रहे हैं पूंजीपतियों के चहेते ?
कंपनी मालिकों का सीधा और सरल फंडा है कॉस्ट-कटिंग, जिसके अनुसार वह अपने फायदे के लिए कर्मचारियों की सैलेरी, इंक्रीमेंट और उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं में मनचाही कटौती कर लेते हैं. कंपनी पॉलिसी का नाम देकर कंपनियां केवल अपने हित साधने का प्रयत्न करती हैं. उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता कि उससे उनके अधीन काम करने वाले कर्मचारियों को कितनी परेशानी या अर्थिक तंगी से जूझना पड़ेगा.
कभी-कभार जब हालात बदतर हो जाते हैं तो शुरू होता है हिंसा का दौर. कोई भी कंपनी यह नहीं चाहती कि उसके अधीनस्थ कर्मचारी अपनी विरोधी आवाज बुलंद करें. क्योंकि इससे उनकी साख और उत्पादन अत्याधिक प्रभावित होते हैं. वैसे भी हिंसा से किसका भला हुआ है लेकिन यहां बात सिर्फ कंपनियों के भले की ही होनी चाहिए क्योंकि आम जन तो अपने अधिकारों को पाने के लिए अपनी जान की बाजी तक भी लगा दें तो भी पूंजीपतियों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. हाल ही में हुई मानेसर की घटना मजदूर आंदोलन का एक ज्वलंत उदाहरण है.
कॉस्ट-कटिंग का यह फॉर्मूला अब तक धड़ल्ले के साथ प्रयोग किया जा रहा था लेकिन अब अन्ना हजारे ने अपनी दिनचर्या और जरूरतों को एक आदर्श के रूप में स्थापित कर इस नीति को और अधिक बल प्रदान कर दिया है.
जल्द ही अपनी पॉलिटिकल पार्टी बनाकर राजनीति में प्रवेश करने वाले अन्ना का कहना है कि वह मंदिर में रहते हैं और उन्हें जो 6,000 रुपए पेंशन के तौर पर मिलते हैं वह उसमें से आधे दान कर बाकी बचे 3,000 रुपए से बड़ी आसानी के साथ अपना गुजारा चलाते हैं. उनके अनुसार आम आदमी को इससे ज्यादा और कुछ चाहिए भी नहीं. अब आप ही बताइए जो व्यक्ति पूंजीवादियों के पैंतरे को इतनी सहजता के साथ अपने अनुयायियों तक पहुंचा रहा हो, वह जब चुनावी मैदान में उतरेगा तो भला कौन पूंजीपति उनके हाथ नहीं मजबूत करना चाहेगा. अरे भई, ऐसा शख्स जिसके हर कथन, हर बात को जनता पत्थर की लकीर मानकर बड़ी तन्मयता के साथ अनुसरण करने लगती है, वह जब जनता को अपनी जरूरतों को कम करने के साथ-साथ कम पैसों में संतुष्ट रहने जैसे आह्वान करेगा तो कौन उनकी बात टालने की सोच सकता है?
अहिंसा परमो धर्मः जैसी सूक्ति को मूलमंत्र मानकर चलने वाले अन्ना हजारे के अनुयायी भी उनके मार्ग पर चल पड़ेंगे. फिर चाहे कोई उनके हितों की ओर ध्यान दे य ना दें, उनकी जरूरतों और परेशानियों को समझे ना समझे वह कभी उनके बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए हिंसा का सहारा नहीं लेंगे. बस हो गया पूंजीपतियों का काम आसान, इससे ज्यादा उन्हें और चाहिए भी क्या. राजनीति में आने से पहले ही अन्ना ने अपने सफल राजनैतिक जीवन की पृष्ठभूमि का निर्माण कर लिया है. अब ऐसे में अन्ना के इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भले ही कुछ हो ना हो अन्ना के साथ-साथ उनकी टीम का राजनैतिक कॅरियर तो हिट हो ही जाएगा.
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