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क्या सीता के चरित्रोन्नायक महाकवि नारी द्रोह के अपराधी हैं

सरोकार
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जिमि स्वतंत्र भय बिगरहिं नारीमहामना तुलसीदास कृत अग्रलिखित वचन नारी के स्वातंत्र्य और स्वाधीनता को बाधित करने का प्रयास करते नजर आते हैं. महाकवि के इस वक्तव्य में यह प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है कि नारी के ऊपर किसी भी रीति में पुरुष का रक्षण कायम रहना चाहिए अन्यथा नारी का चरित्र, आचरण, व्यवहार और मर्यादा नियंत्रित और संतुलित नहीं रखी जा सकती.


रत्नावली के व्यंग्य बाणों से उपेक्षित और सांघातिक पीड़ा का वरण करने वाले महाकवि पूरे जीवन नारी के विरुद्ध द्रोह भाव से ग्रसित रहे, जिसे उन्होंने मानस की कुछ पंक्तियों में विभिन्न प्रकरणों में व्यक्त भी किया है. महाकवि संत्रासित होने के भाव से मर्मांतक रूप से मर्माहत हुए और येन केन प्रकारेण अपनी पीड़ा को लेखनी के माध्यम से उड़ेलते नजर आते हैं. जिस उपेक्षा और अपमान को उन्होंने रत्नावली के वक्तव्यों में महसूस किया उसके वास्तविक निहितार्थों को समझने के बावजूद महाकवि ने कहीं ना कहीं उसे उपेक्षित किया तथा मानस की पंक्तियों में स्त्री द्रोह की भावना को जाने-अनजाने ही समाहित कर दिया.


‘शूद्र, गंवार, ढोल, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी’ जैसा वक्तव्य भी महाकवि ने किसी खास उद्देश्य से उल्लिखित किया है किंतु इसमें भी उनके इसी भाव की ही पुनरावृत्ति निदर्शित हुई है जो उन्होंने उपरोक्त वर्णित वक्तव्य में महसूस किया.


पुरुषवादी वर्चस्व तथा अहंकार के निदर्शन में बेहद सरल हृदय महाकवि से भी यह बात प्रकट हो ही जाती है कि अंतिम तौर पर समाज नारी के स्वातंत्र्य और गरिमा को बंधन युक्त रखने में सुरक्षित समझता है. रूप गर्विता नारी के छल प्रपंच, त्रिया चरित्र से कामासक्त पुरुष की बुद्धि और विवेक शून्यता की तरफ बढ़ जाते हैं और वह उसके वास्तविक आशय को समझने की बजाय उससे सम्मोहित या वशीभूत होकर विचरण करने लगता हैकहीं ना कहीं महाकवि को ऐसा ही प्रतीत होता नजर आता था इसीलिए ना चाहते हुए भी मजबूरन उनकी लेखनी नारी द्रोह के भाव से युक्त नजर आती है.


किंतु क्या वाकई मानस के रचयिता की बुद्धि इतनी क्षुद्र हो सकती थी कि उनका स्वयं की भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रह गया हो और उन्होंने अपने पूर्वाग्रहों को रचना में उड़ेल दिया हो, जबकि वही महामना सीता जैसे चरित्र के उन्नायक भी सिद्ध होते हैं. क्या पुरुषवादी वर्चस्व की अहंकार युक्त भावना नारी की महानता को जगह-जगह वर्णित करने वाले महाकवि के हृदय को दग्ध करती है? नि:संदेह व्याख्याताओं से भूलें हुई हैं. वक्तव्यों के पूरे निहितार्थों को समझे बिना महाकवि का चरित्र चित्रण नारी द्रोही के तौर पर करना उनके साथ अन्याय होगा.


मानस की पंक्तियों पर जिस जगह उपरोक्त वक्तव्य सम्माहित किए गए हैं वह सिर्फ उन नारियों के लिए हैं जिनके चरित्र व आचरण से समाज और परिवार को हानि पहुंच सकती थी. मूल प्रसंग को जाने बिना केवल उल्लिखित तथ्यों के आधार पर महाकवि की मानसिकता पर प्रहार करना एक खतरनाक प्रवृत्ति है. जबकि उन्होंने अपनी सभी रचनाओं में नारी के उदात्त चरित्र के साथ उसकी मर्यादा, गरिमा तथा स्वतंत्रता को अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयत्न किया तथा संक्रमणकालीन राजनीतिक परिस्थितियों में क्षय होती जा रही नारी की स्थिति को संबल देने की कोशिश की.


रत्नावली के प्रयोजनशील व्यंग्य बाण को महाकवि अच्छी तरह समझते थे और उनके लिए यह बाण मर्मांतक ना होकर मोक्षदायक था. यही कारण है कि महाकवि सीता के चरित्र को व्याख्यायित करते हुए किसी नारी की गरिमा तथा मर्यादा को उच्चतम ऊंचाइयों तक ले जाने का प्रयास किया है. किंतु दुर्भाग्यवश नारी मुक्ति आंदोलन के प्रणेताओं ने महाकवि को जाने-अनजाने नारी द्रोह के अपराधी के तौर पर लांक्षित करने की कोशिश कर दी है.


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